गंगा
जिसमे तर्पण करते ही पुरखें भी त़िर जाते हैं
मानव की तो बात है क्या,देव भी शीश झुकाते हैं.
मैं गंगा हूँ
मेरा अस्तित्व
कोई नहीं मिटा सकता है.
मैं ब्रह्मा के आदेश से
स्रष्टि के कल्याण के लिए उत्तपन हुई.
ब्रह्मा के कमंडल मे ठहरी
भागीरथ की प्रार्थना पर
आकाश से उतरी.
शिव ने अपनी जटाओं मे
मेरे वेग को थामा,
गौ मुख से निकली तो
जन-जन ने जाना.
मैं बनी हिमालय पुत्री
मैं ही शिव प्रिया बनी
धरती पर आकर मैं ही
मोक्ष दायिनी गंगा बनी.
मेरे स्पर्श से ही
भागीरथ के पुरखे तर गए
और भागीरथ के प्रयास
मुझे भागीरथी बना गए.
मैं मचलती हिरनी सी
अलखनंदा भी हूँ.
मैं अल्हड यौवना सी
मन्दाकिनी भी हूँ.
यौवन के क्षितिज पर
मैं ही भागीरथी गंगा बनी हूँ.
मैं कल-कल करती
निर्मल जलधार बनकर बहती
गंगा
हाँ मैं गंगा हूँ.
दुनिया की विशालतम नदियाँ
खो देती हैं
अपना वजूद
सागर मे समाकर.
और मैं गंगा सागर मे समाकर
सागर को भी देती हूँ नई पहचान
गंगा सागर बनाकर.
डॉ अ कीर्तिवर्धन.
9911323732
Saturday, August 14, 2010
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1 comment:
सुन्दर कवितायें बार-बार पढने पर मजबूर कर देती हैं.
आपकी कवितायें उन्ही सुन्दर कविताओं में हैं.
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