नए दौर के इस युग मे
सब कुछ उल्टा दिखता है
महँगी रोटी सस्ता मानव
गली-गली मे बिकता है।
कहीं पिघलते हिम पर्वत
हिमयुग का अंत बताते हैं
सूरज की आर्मी भी बढती
अंत जान का दीखता है।
अबला भी अब बनी है सबला
अंग प्रदर्शन खेल में
नैतिकता का पतन हुआ है
जिस्म गली मे बिकताहाई।
रिश्तों का भी अंत हो गया
भौतिकता के बाज़ार मे
कौन पिता और कौन है भ्राता
पैसे से बस रिश्ता है।
भ्रष्ट आचरण आम हो गया
रुपैया पैसा ख़ास हो गया
मानवता भी दम तोड़ रही
स्वार्थ दिलों मे दिखता है।
पत्नी सबसे प्यारी लगती
ससुराल भी न्यारी लगती
मात पिता संग घर मे रहना
अब तो दुष्कर लगता है।
पर्वत से वृक्षों का कटना
नदियों से जल का घटना
तनाव ग्रस्त मानव का देखो
जीवन संकट दीखता है।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
Saturday, May 2, 2009
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